मैत्री

निस्तब्ध,निबिड़ वन की भांति,

जब अन्तस् मेरा मौन था,

सुनो कहती हूं,व्यथा अपनी,

तब साथी मेरा कौन था?

करता था जब अन्तस् क्रंदन,

पीड़ा ना सही जब जाती थी,

मधुर गुंजन के सम तब एक,

ध्वनि सुनाई आती थी,

उस ध्वनि का अनुसरण कर मैं,

तम से बाहर तब आती थी,

खो जाती थी जब जब तम में,

तब तब उसको मैं पाती थी।

ये सम्बन्ध नही है रक्त का,

जो जन्म से ही मिल जाता है,

प्रतिरूप ढूंढने को अपना ,

कुछ कर्म तो पड़ता है,

संचित धन से बढ़कर है ये,

मैत्री अमूल्य थाती है,

वो डोर है मैत्री हृदय की,

जो हृदय तक ही जाती है।

#मैत्री

@अवि🌳

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